Wednesday 27 October, 2010

अन्तिम घर का नौनिहाल : माणिक

एकदम काला काला सा और भूखा भी

अन्तिम घर का नौनिहाल था वो

घण्टी सुनकर स्कूल आता वेणीराम

ले बस्ता,बुझे मन से चल पड़ता स्कूल

बैठता था कुछ देर बारामदे में

जी अटका था बकरियों में

उसके बहरे कानों तक जा पंहुचती थी

मिंमियाती बकरियां,ढोर-ढंगर की आवाजाही

सुन आहट स्कूल के पिछवाड़े से ही

अनायास ही चल पड़ता फिर घर को

झुमता,कूदता हुआ,लांगता था नालियां

कारागार से छुटने सी खुशी थी उसे

एक नही दो नही,कई वेणीराम थे वहां

छपरे से झांकती उसकी मेहनती मां

और बाड़े से झांकती बकरियां

बुलाती थी उसे गरजवाली आंखों की टकटकी

रहा बसेरा इसी बस्ती में मेरा भी दिन चार

पेड़ों के सूखे पत्ते और झुरमुट झाड़ियां

थी उसके जीवन का रंगीन हिस्सा

चार भाइयों और तीन बहनों में

छुटका था वो सबसे पिछड़ा

ऑरकुट ,आईपीएल और सेंसेक्स

बेअसर लगते थे

उसकी बकरियों के झुण्डवाली मस्ती में

कमरबंधी रोटी,चटनी और दो प्याज

गिरते नही थे कहीं उसकी उछल-कूद में

तेज भूख,बीहड़ जंगल और गंदले तालाब

नंगे शरीर डूबकियों से बढ़ता आनन्द ऐसे में

बस्ती के बरगद पर लकड़ी में अटका

पगल्ये वाला झण्डा

और धूणी वाले बाबा पर मोहित चलमें पीते

उपरले मौहल्ले के ज़मादार

आज़ भी याद आते हैं

पीली मिट्टी से कभी-कभार पुती दीवारों पर

गेरुआं रंग के माण्डने देखे थे

खड़िया से बने दो-चार फूल और बेलबूटों

से झांकती है रचना उनकी

जैसे-तैसे

परेशानी के जीवन में खुशियां

छांटते थे वे लोग

दु:ख-दर्द की घड़ियों में

हिम्मत बांटते थे वे लोग

हम जान पायेंगे कैसे उन

आड़े-तिरछे छप्पर वाले

बेसुध मकानों की पीड़ा

नहीं भूल पाता हूं

सरकारी स्कूल की टोंटियां खुल्ली छोड़ जाते

आते जाते गुडमोर्निंग कहते वे

अनपढ़ और घुमक्कड़ बच्चें

याद रहा उनकी बोटल में भरा

पीपल वाले हेण्डपंप का गन्दा पानी

मेल जमे नाखुनों पर नेलपोलिश करती लड़कियां

जिसमें काम आती बाबुजी के पेन की नली

फूंक लगाकर स्लेट सुखाती

वो उलझे बालों वाली अनाथ लड़कियां

टंविंकल-टंविंकल से बढ़िया ब्याह के गीत गाती थी

कभी लगा कि

पुरखों की ज़बरन से हुए

बाल विवाह की उपज थी वो

हां कुछ बातें पक्की थी

स्कूल कभी का छूट गया

उपले,जंगल और खेतीबाड़ी

यही बचा बस उपवन में

ले देकर जिमणे के दिन याद आती थी

स्कूल के लिये मंगाई खाखी पेंट

झण्डे के झण्डे काम आती

वो सलवार-कुर्ती

झाड़ियों से हुई हाथापाई से बचा-कुचा

नीला शर्ट काम आयेगा

आज फ़िर से मरणभोज में जाते जाते

गांवों की जब-जब बात चली

पड़ौसी के ब्याह और मेले-मण्डप में

डोलते फिरते जो इधर उधर

वेणीराम से लड़के और फुलो जैसी लड़की

ताज़े अभिनय लगते रहे

कहानी अभी बाकी है

अध्धे और पव्वे मे डुबे लोगों की

लोगों से पिटती हुई अबलायें लिखना बाकी है

बस्ती का घोर अन्धेरा

छूकर डरना बाकी है

आज़ का अन्तिम यहीं तलक बस

अब मेरी भी

बकरियां छूटी जाती है

लिखुंगा फ़िर कभी मैं

फ़ुरसत में अपनी बस्ती को

लाउंगा वेणीराम और फुलो को भी

फिर से

कविता में कबड्डी खेलने को !!

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7 comments:

arvind said...

bahut badhiya post sundar kavita.

प्रवीण पाण्डेय said...

मस्तमौला आवरगी वेणीराम की। सुन्दर कविता।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अच्छी प्रस्तुति ..

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

यह कविता हमें तो बहुत अच्छी लगी
तभी तो इसकी चर्चा की है-
http://mayankkhatima.blogspot.com/2010/10/26.html

रानीविशाल said...

बहुत संवेदनशील प्रस्तुति ....आभार
अनुष्का

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

मन को छू गयी कविता, बधाई।

Unknown said...

bAHUT KHUB..!!