Sunday, 21 October 2012

हिंदी के श्रेष्ठ शिशु-बाल गीत

हिन्दी के श्रेष्ठ शिशु और बाल गीतों की यदि चर्चा हो तो सर्वप्रथम हमारा ध्यान लोक-साहित्य पर जाता है। जिसमें न केवल अनेक लोककथाओं को पिरोते हुए बच्चों के लिए कविताएँ मिलती हैं बल्कि स्वर, लय और ध्वनि के चमत्कार से सुसाित बाल-मन को लुभाने वाले अनेक खेल गीत भी विद्यमान हैं। बाल लोकगीतकारों ने शिशु-मानस को बहुत आत्मीयता से देखा है और उसके अनुरूप ही गीत रचे हैं। इन गीतों के रचयिताओं के नाम कोई नहीं जानता लेकिन ये बाल और शिशु गीत हिंदी समाज में बच्चों के मन को वर्षों से गुदगुदाते आए हैं।

अक्कड़-बक्कड़ बंबे बोअस्सी नब्बे पूरे सौ।
सौ में लगा धागाचोर निकल के भागा।
 
यह एक ऐसा लोक खेल-गीत है जिसे गाकर बच्चे अपना कोई भी खेल आरंभ करते हैं।
बच्चों के लिए लोक-साहित्य में चंदा को हमेशा बच्चों के मामा की तरह प्रस्तुत किया गया है और चंदा मामा को लेकर अनेक बाल तथा शिशु-गीत प्रचलित हैं।

चंदा-मामा दूर केपुए पकाए पूर के
आप खाए थाली मेंमुन्ने को दें प्याली में
प्याली गई टूटमुन्ना गया रूठ!

ये प्लालियाँ, कटोरियाँ जिसमें बच्चे दूध-दही-भात, मनपसंद व्यंजन खाते हैं-बच्चों के मन में बसी रहती हैं।

लल्ला लल्ला लोरीदूध की कटोरी
दूध में बताशालल्ला करें तमासा।


या फिर,

अटकन-बटकन दही चटाकनमामा लाए चार कटोरी
एक कटोरी टूट गईमामा की बहू रूठ गई।


लोक-साहित्य अलिखित साहित्य है। पर हिंदी में लिखित बाल-साहित्य का प्रारंभ हम भारतेन्दु-युग से मान सकते हैं। इससे पहले बाल-साहित्य के नाम पर संस्कृत से हिंदी में अनुवादित केवल पंचतंत्र और हितोपदेश जैसी कृतियाँ ही थीं। इसमें बेशक बच्चों की अस्मिता झलकती है। भारतेंदु हरिश्चन्द्र की प्रेरणा से बाल-दर्पण (1862) तथा बालबोधिनी (1874) पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ। इन पत्रिकाओं से ही हिंदी में बाल-साहित्य का जन्म हुआ। भारतेंदु-युग के प्रमुख बाल साहित्यकारों में सबसे पहले स्वयं भारतेन्दु हरिशचन्द्र का ही नाम आता है। आपकी बालोपयोगी पुस्तकों में सत्य हरिश्चन्द्र, अंधेर नगरी, बादशाह दर्पण और कश्मीर कुसुम प्रमुख हैं। अंधेर नगरी की ये पंक्तियाँ तो आज भी बच्चों का ही नहीं, बड़ों-बड़ों का भी केवल मनोरंजन ही नहीं करतीं, उन्हें सोचने के लिए भी बाध्य करती हैं।

अंधेर नगरी चौपट राजा।
टके सेर भाजी, टके सेर खाजा॥


पूर्व स्वतंत्रता युग, जिसे हम 1901 से 1947 तक मान सकते हैं, में हिन्दी बाल साहित्य में काफी बढ़ोतरी हुई। इस काल के बाल साहित्यकारों में कामताप्रसाद गुरु, मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, सुखदेव चौबे, विद्याभूषण, विशु, गिरजा दत्त शुक्ल, श्रीनाथ सिंह, सोहनलाल द्विवेदी, रामेश्वर गुरु, आदि प्रमुख हैं। इनमें से कई ऐसे कविलेखक हैं जो स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े रहे और जिनमें राष्ट्रीय भावना की प्रमुखता रही। इनकी बाल कविताएं भी राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत रहीं। सोहनलाल द्विवेदी इनमें प्रमुख कवि कहे जा सकते हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी का कहना था कि हिंदी में बड़े-बड़े साहित्यकार तो हैं किंतु बच्चों के माई-बाप तो केवल सोहनलाल द्विवेदी हैं। द्विवेदी जी ने राष्ट्रभाव को विकसित और प्रेरित करने के लिए अनेकानेक बाल गीत लिखे और इनमें उपदेश भी कुछ इस तरह दिया कि बच्चों का अपना स्वाद बरकरार रहे-

मीठा होता खस्ता खाजा
मीठा होता हलुआ ताजा
मीठे होते गट्टे गोल
सबसे मीठे, मीठे बोल
मैंने पाले बहुत कबूतर
भोले भाले बहुत कबूतर
पहने हैं पैंजनी कबूतर





बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दौर में जिन्हें और शिशु गीतकारों के रूप में प्रथम कवियों में सम्मिलित किया जा सकता है वे हैं, श्रीधर पाठक, बालमुकुंद गुप्त, सत्यनारायण कविरत्न आदि। बालमुकुंद गुप्त ने रेलगाड़ी नाम से एक अत्यंत सुंदर कविता लिखीं-

हिस हिस हिस हिस हिस हिस करती
रेल धड़ाधड़ जाती है
जिन जंजीरों से जकड़ी है
उन्हें खूब खड़काती है।





इस बाल गीत में स्पष्ट ही स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न करने का उपदेश भी निहित है। इस काल प्रसंग में यदि अयोध्यासिंह उपाध्याय का नाम न लिया जाय तो यह उनके साथ बड़ा अन्याय होगा। हरिऔघ एक गंभीर कवि थे, लेकिन उन्होंने कई बालोपयोगी कविताएं लिखीं। उन्हें भी हिंदी के प्रथम बालकवियों में नि:संदेह रखा जा सकता है। उनकी एक प्रसिद्ध कविता बंदर शीर्षक से है-

देखो लड़कों बंदर आयाएक मदारी उसको लाया।
उसका है कुछ ढंग निरालाकानों में पहने वो बाला॥




पूर्व स्वतंत्रता युग के कुछ अन्य कवियों ने अत्यंत रोचक और बाल-मन में अपनी पैठ बनाती कविताएं रची हैं जिन्हें हम न केवल उत्कृष्ट कविताएं कह सकते हैं, बल्कि जो शिशु-बाल गीत लेखन के लिए एक मापदंड बनाती हैं। श्रीनाथ सिंह की एक कविता है-

नानी का संदूक
नानी का संदूक निरालाहुआ धुएं से बेहद काला
पीछे से वह खुल जाता हैआगे लटका रहता ताला
चंदन चौकी देखी उसमेंसूखी लौकी देखी उसमें
बाली जौ की देखी उसमेंखाली जगहों में है ताला।


भावपूर्ण, संवेदनशील और श्रेष्ठ गीतों को लिखने में जिस कवि ने सचमुच एक बड़ा और युगांतर काम किया है, वह है निरंकार देव सेवक। उन्होंने ही सच पूछा जाय, शिशु गीतों की असली पहचान कराई, उनकी खूबियों पर प्रकाश डाला और साथ ही उन्हें एक आधुनिक मुहावरा दिया। उनका एक मजेदार बाल गीत इस प्रकार है-

अगर मगर दो भाई थे, लड़ते खूब लड़ाई थे।
अगर मगर से छोटा था, मगर मगर से खोटा था.


-


अभी तक चिड़िया हिंदी शिशुबाल कविताओं में चीं चीं चूं चूं ही बोलती थी। एक प्रसिद्धि कविता है- चिडिया है चीं चीं बोल रही कानों में अमृत घोल रही वे फुदक-फुदक इठलाती हैं वे सबका मन बहलाती हैं। निरंकार जी ने चिड़ियों की बोली को एक नया आकार दिया। चिड़ियों की यह नई बोली हिंदी को अंग्रेजी अक्षरों और उनके संयोजन से मिली

टी-टुट टुट
चिड़िया कहती टी-टुट टुट, मुझको भी दे दो बिस्कुट
भूखी हूं, मैं खाऊंगी, खा पीकर उड़ जाऊंगी





यह वह समय था जब अंग्रेजी साहित्य का हिंदी पर गहरा प्रभाव पड़ रहा था। वस्तुत: हिंदी का सारा छायावादी साहित्य अंग्रेजी रोमेटिज्म से प्रभावित और प्रेरित था। इसी प्रभाव में सुमित्रानन्दन पंत ने यह कविता लिखी-

संध्या का झुटपुटबांसों का झुरमुट
थीं चहक रहीं चिड़ियां टी वी टी टुट टुट





ये पंक्तियां एक गंभीर कविता का अंश है। लेकिन सेवक जी ने चिड़ियों की इस अंग्रेजी बोली को स्पष्ट ही शिशु गीत में पिरोया है।

पूर्व स्वतंत्रता युग ने यदि हिंदी शिशु बाल गीतों के लिए एक सुदृढ़ आधार तैयार किया तो स्वतंत्रता के बाद के युग में ऐसे गीतों के लिए एक अच्छी और मजबूत इमारत बनी। इस युग के कवियों में दामोदर अग्रवाल, शेर जंग गर्ग, बाल स्वरूप राही, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, योगेन्द्र कुमार लल्ला, सूर्य कुमार पांडे, शंकुतला सिरोठिया आदि नाम सम्मान से लिए जा सकते हैं।
सेवक जी के बाद शिशु गीतों को और भी अधिक ऊंचाई पर ले जाने वालों में शेर जंग गर्ग का नाम सर्वोच्च शिखर पर है। बाल-मन को लुभाने वाले उनके नटखट और चुटीले गीत बहुत ही प्यारे बन पड़े है
कितनी अच्छी कितनी प्यारीसब दुनिया से न्यारी गाय
सारा दूध हमें दे देतीआओ इसे पिलाएं चाय
अथवा
गुड़िया है आफत की पुड़ियाबोले हिंदी कन्नड़ उड़िया।
नानी के संग भी खेली थीकिंतु अभी तक हुई न बुढ़िया॥
इन गीतों में जहां बच्चों के लिए मनोरंजन है, वहीं एक खिलंदडेपन के साथ विचार को प्रेरित करने वाले तत्व भी हैं। यही बात हमें दामोदर अग्रवाल के बाल-गीतों में भी दिखाई देती है। उन्होंने प्रकृति के कई रंग-बिरंगे चित्र तो खींचे ही हैं
कुछ रंग भरे फूलकुछ खट्टे मीठे फलथोड़ी बांसुरी की धुनथोड़ा जामुन का जल- परंतु उनके गीतों में कहीं न कहीं विचार भी समाहित है।
सड़क पर मिले जो मुझे एक पैसा
मैं झट से उसे अपनी मुट्ठी में ले लूं
मैं झट से उसे अपने भाई को दे दूं
मैं झट सेउसे अपनी मां को दिखाऊं
मैं सबको चलूं ले के मेला दिखाऊं
मैं राजा बनूं और हाथी पे घूमूं
मैं वो पैसा पूरा का पूरा लूटा दूं
मैं पैसा लुटाकर गरीबी मिटा दूं
योगेन्द्र कमार लल्ला और सूर्य कुमार पांडे के शिशु-गीत भी उल्लेखनीय हैं। उन्हें बिना किसी विवाद के श्रेष्ठ गीतों में रखा जा सकता है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना एक बड़े कवि हैं। लेकिन बाल मन में उनकी पैठ देखते ही बनती है। उनकी प्रसिद्ध कविता-इब्नबतूतापहन के जूता-हमारा ध्यान तो खींचती ही है, बच्चों के दिल को भी आकर्षित करती है। हाल ही में इसकी प्रथम पंक्ति को टेक बनाकर एक फिल्मी गाना काफी चर्चा में रहा और गीतकार गुलजार पर आरोप लगाए गए। पर मुद्दे की बात यह है कि गुलजार जैसे कवि भी इस गीत के आकर्षण से बच नहीं पाए। सर्वेश्वर जी का पूरा गीत इस प्रकार है
इब्नबतूता पहन के जूता निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
थोड़ी घुस गई कान में
कभी नाक को कभी कान को
मलते इब्नेबतूता
इसी बीच में निकल पड़ा
उनके पैरों का जूता
उड़ते-उड़ते जूता उनका
जा पहुंचा जापान में
इब्नबतूता खड़े रह गए मोची की दुकान में।

यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि हिन्दी जगत में कोई भी कवि अपने को बाल कवि के रूप में स्थापित करने के लिए उत्सुक नहीं हैं। बड़े-बड़े कवियों ने तमाम अच्छे शिशु और बाल गीत लिखे हैं। बाल साहित्य रचा है। कुछ ने तो अपना लेखन ही बाल साहित्य से आरंभ किया है। लेकिन आगे चलकर वे प्रौढ़ साहित्य की ओर प्रवृत्त हो गए। बाल साहित्य उनके लिए गौण हो गया। यह ध्यातव्य है कि हिंदी के अनेक बड़े और प्रतिष्ठित कवियों ने बाल साहित्य की रचना की। उनमें मुंशी प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, निराला, सुमित्रानंदन पंत, सुभद्राकुमारी चौहान, मैथिलीशरण गुप्त, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि साहित्यकारों का नाम लिया जा सकता है। किंतु क्योंकि हिंदी में बाल साहित्य हमेशा ही दोयम दर्जे का साहित्य माना गया अत: बड़े साहित्यकार इससे विमुख हो गए। आज जरूरत है कि प्रतिभा संपन्न साहित्यकार बाल लेखन की ओर प्रवृत्त हों और अपने को बाल साहित्यकार कहलाने में गौरवान्वित महसूस करें।

-डा. सुरेन्द्र वर्मा
10 एचआईजी-1, 29 कलर रोड, इलाहाबाद-11001

(साभार: लोक गंगा)

5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

वाह, बचपन की सैर कर आये।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
--
दुर्गाष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ!

Shahroz said...

आज जरूरत है कि प्रतिभा संपन्न साहित्यकार बाल लेखन की ओर प्रवृत्त हों और अपने को बाल साहित्यकार कहलाने में गौरवान्वित महसूस करें..great words.

Shahroz said...

एक साथ इतना उम्दा संकलन ..डा. सुरेन्द्र वर्मा जी का आभार/

Unknown said...

nice geet