बारिश का मौसम है आया।
हम बच्चों के मन को भाया।।
'छु' हो गई गरमी सारी।
मारें हम मिलकर किलकारी।।
कागज की हम नाव चलाएं।
छप-छप नाचें और नचाएं।।
मजा आ गया तगड़ा भारी।
आंखों में आ गई खुमारी।।
गरम पकौड़ी मिलकर खाएं।
चना चबीना खूब चबाएं।।
गरम चाय की चुस्की प्यारी।
मिट गई मन की खुश्की सारी।।
हम बच्चों के मन को भाया।।
'छु' हो गई गरमी सारी।
मारें हम मिलकर किलकारी।।
कागज की हम नाव चलाएं।
छप-छप नाचें और नचाएं।।
मजा आ गया तगड़ा भारी।
आंखों में आ गई खुमारी।।
गरम पकौड़ी मिलकर खाएं।
चना चबीना खूब चबाएं।।
गरम चाय की चुस्की प्यारी।
मिट गई मन की खुश्की सारी।।
6 comments:
अच्छा याद दिलाया आपने, चाय पकौड़े खाते हैं।
bahut sundar kavita..
सचमुच, आपकी पोस्ट बहुत बढ़िया है।
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इसकी चर्चा बाल चर्चा मंच पर भी है!
http://mayankkhatima.blogspot.com/2010/09/16.html
बहुत अच्छा बाल गीत!
आंच पर संबंध विस्तर हो गए हैं, “मनोज” पर, अरुण राय की कविता “गीली चीनी” की समीक्षा,...!
गरम पकौड़ी मिलकर खाएं।
चना चबीना खूब चबाएं।।
गरम चाय की चुस्की प्यारी।
मिट गई मन की खुश्की सारी।।
...सुन्दर कविता..अब तो चाय-पकौड़ी की तलब भी महसूस हो रही है. दीनदयाल जी को बधाई.
बचपन मे बारिश का अपना हे मज़ा होता है । बहुत सुन्दर रचना बधाई।
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