Thursday 25 November, 2010

गुड़ियों का संसार : आकांक्षा यादव

गुड़िया भला किसे नहीं भाती। गुडिया को लेकर न जाने कितने गीत लिखे गए हैं. गुडिया के बिना बचपन अधूरा ही कहा जायेगा. खिलौने के रूप में प्रयुक्त गुड़िया लोगों को इतना भाने लगी कि इसके नाम पर बच्चों के नाम भी रखे जाने लगे. बचपन में अपने हाथों से बने गई गुड़िया किसे नहीं याद होगी. गुड्डे-गुड़िया का खेल और फिर उनकी शादी॥न जाने क्या-क्या मनभावन चीजें इससे जुडी थीं. लोग मेले में जाते तो गुड़िया जरुर खरीदकर लाते. रोते बच्चों को भी हँसा देती है प्यारी सी गुड़िया. अब तो बाजार में तरह-तरह की गुड़िया उपलब्ध हैं. गुड़िया की बकायदा ब्रांडिंग कर मार्केटिंग भी की जा रही है.

सर्वप्रथम गुड़िया बनाने का श्रेय इजिप्ट यानी मिश्रवासियों को जाता है। इजिप्ट में लगभग 2000 साल पहले धनी परिवारों में गुड़िया होती थीं। इनका प्रयोग पूजा के लिए व कुछ अलग प्रकार की गुड़िया का प्रयोग बच्चे खेलने के लिए करते थे। पहले इस पर फ्लैट लकड़ी को पेंट करके, उस पर डिजाइन किया जाता था। बालों को वुडन बीड्स या मिट्टी से बनाया जाता था। ग्रीस और रोम के बच्चे बड़े होने पर लकड़ी से बनी अपनी गुड़िया देवी को चढ़ा देते थे। उस समय हड्डियों से भी गुड़िया बनाई जाती थीं। ये आज की तुलना में बहुत साधारण होती थीं। कुछ समय बाद वैक्स से भी गुड़िया बनाई जाने लगीं। इसके बाद गुड़िया को रंग-बिरंगी ड्रेसेस पहनाई जाने लगीं। यूरोप भी एक समय में डाॅल्स हब था। वहाँ बड़ी मात्रा में गुड़िया बनाई जाती थीं।

17वीं-18वीं शताब्दी में वैक्स और वुड की बनी गुड़िया बहुत प्रचलित थीं। धीरे-धीरे इनमें सुधार होता रहा। 1850 से 1930 के बीच इंग्लैंड में गुड़िया के बनाने में एक और परिवर्तन किया गया। इनके सिर को वैक्स या मिट्टी से बनाकर प्लास्टर से इसको मोल्ड किया गया। सबसे पहले एक बेबी के रूप में गुड़िया को बनाने का श्रेय इंग्लैंड को जाता है। 19वीं शताब्दी में इस गुड़िया को भी वैक्स से बनाया गया था। 1880 में फ्रांस की बेबे नाम की गुड़िया तो खूब प्रसिद्द हुई थी। यही वह सुन्दर गुड़िया थी जिसको 1850 में बेबी के रूप में सबसे पहले बनाया गया था। इससे पहले की लगभग सभी गुड़िया बड़े लोगों के रूप में बने जाती थीं। लेकिन ये सभी गुड़िया काफी मँहगी थीं। जर्मनी ने बच्चों में गुड़िया का बढ़ता क्रेज देखकर सस्ती गुड़िया बनाने की शुरुआत की थी। मँहगी होने की वजह से अधिकतर माँ अपने बच्चे को काटन या लिनन के कपड़े से गुड़िया बनाकर देती थीं। 1850 में अमेरिकन कंपनियों ने इस प्रकार की गुड़िया बड़ी मात्रा में बनानी शुरू कर दीं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान गुड़िया बनाने के लिए प्लास्टिक का प्रयोग शुरू किया गया. 1940 में कठोर प्लास्टिक की गुड़िया बनाई जाने लगीं। 1950 में रबड़, फोम आदि की गुड़िया भी बनाई जाने लगीं। इसके बाद तो गुड़िया को न जाने कितने रंग-रूप में ढाला गया. बार्बी गुड़िया के प्रति बच्चों का क्रेज जगजाहिर है. अब भिन्न-भिन्न प्रकार की और भिन्न-भिन्न दामों में गुड़िया बाजार में आ गई हैं. बस जरुरत है उन्हें खरीदने और फिर गुड़िया तो जीवन का अंग ही हो जाती है.

कई लोग तो तरह-तरह की गुड़िया इकठ्ठा करने का भी शौक रखते हैं. गुड़िया के बकायदा संग्रहालय भी हैं. इनमें से एक शंकर अन्तर्राष्ट्रीय गुड़िया संग्रहालय नई दिल्ली में बहादुर शाह जफर मार्ग पर चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट के भवन में स्थित है। इस संग्रहालय की स्थापना मशहूर कार्टूनिस्ट के. शंकर पिल्लई ने की थी। विभिन्न परिधानों में सजी गुड़ियों का यह संग्रह विश्व के सबसे बड़े संग्रहों में से एक है। 1000 गुड़ियों से आरंभ इस संग्रहालय में वर्तमान में लगभग 85 देशों की करीब 6500 गुडि़यों का संग्रह देखा जा सकता है। यहाँ एक हिस्से में यूरोपियन देशों, इंग्लैंड, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, राष्ट्र मंडल देशों की गुडि़याँ रखी गई हैं तो दूसरे भाग में एशियाई देशों, मध्यपूर्व, अफ्रीका और भारत की गुड़ियाँ प्रदर्शित की गई हैं। इन गुड़ियों को खूब सजाकर रखा गया है।

Friday 19 November, 2010

कैसी दिखती थीं रानी लक्ष्मीबाई

रानी लक्ष्मीबाई के नाम से भला कौन अपरिचित होगा. आज ही के दिन उनका जन्म हुआ था. पर क्या कभी आपने सोचा है कि वे दिखती कैसी रही होंगीं. तो चलिए इस बार आपको उनका एक दुर्लभ चित्र दिखाते हैं. झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का यह दुर्लभ फोटो 159 साल पहले अर्थात वर्ष 1850 में कोलकाता में रहने वाले अंग्रेज फोटोग्राफर जॉनस्टोन एंड हॉटमैन ने खींचा था। इस फोटो को 19 अगस्त, 2009 को भोपाल में आयोजित विश्व फोटोग्राफी प्रदर्शनी में प्रदर्शित किया गया था। यह चित्र अहमदाबाद के एक पुरातत्व महत्व की वस्तुओं के संग्रहकर्ता अमित अम्बालाल ने भेजा था। माना जाता है कि रानी लक्ष्मीबाई का यही एकमात्र फोटोग्राफ उपलब्ध है !!

Sunday 14 November, 2010

लौट आओ बचपन : आकांक्षा यादव


नेहरु जी के जन्म दिवस को 'बाल-दिवस' के रूप में मनाया जाता है. वाकई बाल-मन बड़ा चंचल होता है और बचपन की यादें हमेशा ताजी रहती हैं. आज बाल-दिवस पर बचपन की बातें हो जाएँ-

बचपन मेरा कितना प्यारा
मम्मी-पापा का राजदुलारा
माँ की ममता, पापा का प्यार
याद आता है लाड़-दुलार।

बचपन मेरा लौट जो आए
जीवन में खुशहाली लाए
पढ़ाई से मिलेगी छुट्टी
बात नहीं कोई होगी झूठी।

अब बचपन मेरे लौट भी आओ
हंसो, खेलो और मौज मनाओ।

Wednesday 10 November, 2010

अर्द्धचन्द्र - जितेन्द्र ‘जौहर’

रात पूछने लगा लाड़ला,
मम्मी से यह बात-
‘बतलाओ...माँ! चन्दा का क्यों,
दिखता आधा गात ?’


बोली माँ,‘दे दिया पजामा-
करने को कल साफ़।
इसीलिए आ गया आज वह,
पैंट पहनकर हाफ़।’


-जितेन्द्र ‘जौहर’,आई आर - 13/6, रेणुसागर, सोनभद्र (उप्र) 231218.

Friday 5 November, 2010

जंगल में दीवाली - कृष्ण कुमार यादव


जंगल में मनी दीवाली
चारों तरफ फैली खुशहाली
शेर ने पटाखे छुड़ाये
लोमड़ी ने दिये जलाये

बन्दर करता खूब धमाल
भालू नाचे अपनी चाल
हाथी सब खा गया मिठाई
गिलहरी ने रोनी सूरत बनाई

शेर गरजे पानी बरसे
होती हाथी की ढुंढ़ाई
तब तक लोमड़ी मिठाई लाई
मिल-बाँट कर सबने खाई।


कृष्ण कुमार यादव